कालिधर लापता (2025) की पूरी फिल्म कहानी
गांव की मिट्टी की सोंधी खुशबू में लिपटा हुआ एक नाम है कालिधर, झुकी हुई पीठ, आंखों में न जाने कितनी कहानियां, होठों पर मुस्कुराहट जो वक्त की मार के बावजूद फीकी नहीं पड़ी, और कंधों पर उस बेटे का हाथ जिसकी मासूमियत और उम्मीद ने कालिधर को ज़िंदा रखा, खेतों की मिट्टी से खेलता हुआ बचपन, आंधियों से लड़ती हुई जवानी और अब चुपचाप लड़ती हुई बुढ़ापे की सांसें, मगर दिल में वही सपना कि बेटा मुझसे भी बड़ा आदमी बने, उससे भी बड़ी कहानी लिखे, कालिधर हर सुबह सूरज की पहली किरण के साथ खेत की मेड़ों पर चल देता, हाथ में कुदाल, दिल में बेटे की मुस्कुराहट, और ज़हन में बीते दिनों की परछाइयां, कैसे जवान होते ही जिम्मेदारियों का पहाड़ टूट पड़ा, पिता के कर्ज़, सूखी फसल, और गांव वालों की ताने, मगर सब सहा इस उम्मीद में कि बेटा बड़ा होकर आराम से जिए, वो खेत में पसीना बहाते हुए बेटे की किताबों के पन्ने गिनता रहता, सोचता कि एक दिन ये किताबें उसका भविष्य बदल देंगी, दोपहर को सिर पर अंगोछा बांधकर पेड़ की छांव में बैठकर रोटी खाते हुए बेटे की आंखों में छुपे सवाल पढ़ता, शाम को जब बेटा स्कूल से लौटता तो कालिधर की थकान मिट जाती, गांव के चौराहे पर चाय की दुकान पर बैठकर सपनों की बातें होतीं – बेटा कहता “बाबा, बड़ा होकर मैं भी शहर जाऊंगा?” कालिधर की आंखों में हल्की सी चिंता झलकती मगर होंठों पर मुस्कान रहती, “तू जरूर जाएगा, बेटा, मगर अपने दम पर, किसी के आगे हाथ फैलाकर नहीं”, रात को दोनों खाट पर लेटकर तारों से बातें करते, बेटा पूछता “आसमान इतना बड़ा क्यों है?” कालिधर मुस्कुरा कर कहता “क्योंकि सपने भी तो बड़े होने चाहिए”, मगर किस्मत इतनी सीधी कहां होती है, एक दिन गांव में मेला लगता है, कालिधर बेटे को लेकर जाता है, खिलौने दिलाता है, झूले पर बैठाता है, बेटे की हंसी सुनकर दिल भर आता है, मगर लौटते वक्त भीड़ में बिछड़ जाते हैं, बेटे की आंखों में डर, कालिधर की आंखों में बेचैनी, चारों ओर ढूंढता है मगर बेटा कहीं नहीं दिखता, फिर अचानक कुछ ऐसा होता है कि कालिधर खुद ही गुम हो जाता है, कुछ लोग कहते हैं वो कहीं गिर पड़ा, कुछ कहते हैं शहर की ओर निकल गया, बेटा गली-गली ढूंढता है, हर दरवाज़े पर जाकर पूछता है “बाबा दिखे क्या?”, मगर जवाब नहीं मिलता, गांव में कानाफूसी होती है – “पता नहीं कहां चला गया, शायद भाग गया”, मगर बेटा यकीन नहीं करता, उसकी मासूम आंखों में एक ही यकीन – बाबा उसे छोड़कर नहीं जा सकते, वो हर रोज़ वही कपड़े पहनकर निकलता है जिसमें मेला गया था, सोचता है शायद बाबा उसे पहचान लें, स्कूल में भी ध्यान नहीं लगता, किताबों के पन्नों पर बाबा का नाम लिखता है, रात को अकेले रोता है मगर किसी को दिखाता नहीं, उधर कालिधर भी ज़िंदा है, गांव से दूर किसी अनजान शहर की मजदूरी में फंसा हुआ, भीड़ में गुम होकर भी हर पल बेटे की तस्वीर दिल में रखे हुए, वो मजदूरी करता है, ईंटे ढोता है, मगर हर गिरी हुई ईंट पर उसे बेटे की टूटी हुई उम्मीदें याद आती हैं, रात को थककर किसी फुटपाथ पर लेटता है, मगर नींद नहीं आती, आंखों के सामने बेटे की मुस्कुराहट घूमती रहती है, वो रोज़ सोचता है “बस थोड़ा सा और कमा लूं, फिर गांव लौटूंगा, बेटे को गर्व होगा”, मगर वक्त गुजरता जाता है, शहर की भीड़ में वो और गुम होता जाता है, बेटा बड़ा होता है, मगर बचपन की तस्वीरों में बाबा को ढूंढता रहता है, स्कूल की छुट्टी में वो उस रास्ते पर जाता है जहां आख़िरी बार बाबा को देखा था, कुछ बूढ़े पेड़ अब भी वहीं खड़े हैं, वो उनसे भी पूछता है “बाबा आए थे क्या?”, मगर जवाब नहीं मिलता, दोस्तों से भी कम बातें करता है, दिल में खालीपन है, मगर उसकी आंखों में अभी भी उम्मीद की लौ जलती है, उधर कालिधर के बाल सफेद हो जाते हैं, चेहरा झुर्रियों से भर जाता है, मगर दिल में बेटे का नाम आज भी वही गर्माहट लाता है, वो शहर के मंदिर में जाकर भगवान से कहता है “मुझे जीने की सज़ा मत दे, बेटे के पास वापस भेज दे”, फिर एक रात बरसात में भीगा हुआ, कांपता हुआ कालिधर रेलवे स्टेशन पर बैठा होता है, दिल में ठान लेता है – “अब लौटना ही होगा, चाहे जो हो”, अगली सुबह वो गांव के लिए निकल पड़ता है, रास्ते भर डर लगता है “क्या बेटा मुझे देखेगा भी? क्या वो मुझे माफ करेगा?”, मगर दिल कहता है “बाप और बेटे का रिश्ता वक्त से बड़ा होता है”, गांव पहुंचते ही लोग हैरान हो जाते हैं – “अरे कालिधर!”, कोई ताना मारता है “अब क्यों आया?”, मगर कालिधर की आंखें सिर्फ अपने बेटे को ढूंढती हैं, तभी सामने से आता है वो लड़का, जो अब लड़का नहीं रहा, थोड़ा लंबा हो गया, आंखों में पुरानी मासूमियत के साथ दर्द की परछाईं भी, दोनों की नज़रें मिलती हैं, एक पल के लिए वक्त रुक जाता है, बेटा देखता है वही बाबा – कमजोर, थका मगर ज़िंदा, आंखों से आंसू निकलते हैं, मगर कदम रुकते नहीं, वो दौड़कर गले लग जाता है, कालिधर भी खुद को रोक नहीं पाता, बेटा कहता है “बाबा, कहां चले गए थे?”, कालिधर कांपती आवाज़ में कहता है “माफ़ कर दे बेटा, मजबूरी में फंसा रहा, मगर हर पल तेरे बिना मरा हूं”, दोनों की आंखें भीगती हैं, मगर दिल में बोझ हल्का होता है, गांव वाले देख रहे होते हैं मगर उस पल में सिर्फ बाप और बेटा होते हैं, वक्त, हालात, गरीबी, सब छोटे पड़ जाते हैं, बेटा अब बड़ा हो चुका है, वो बाबा का हाथ थामता है, कहता है “अब मैं संभाल लूंगा”, कालिधर की आंखों में गर्व और अफ़सोस का अजीब सा मेल दिखता है, फिर धीरे-धीरे ज़िंदगी पटरी पर आती है, मगर बीते सालों की दूरी का दर्द पूरी तरह मिटता नहीं, बेटा शहर में पढ़ाई करता है, बाबा खेत में वापस पसीना बहाता है, मगर अब शाम को दोनों साथ बैठते हैं, पुराने दिनों की बातें करते हैं, बेटा कभी-कभी बाबा से कहता है “तुम्हारे बिना मैं अधूरा था”, कालिधर कहता है “तेरे बिना मैं भी”, रात को तारों के नीचे फिर से दोनों लेटते हैं, बेटा कहता है “बाबा, मैं बड़ा आदमी बनूंगा”, कालिधर कहता है “बन बेटा, मगर दिल को बड़ा रखना”, कहानी बताती है कि हालात चाहें जितने भी बुरे हों, बाप और बेटे का रिश्ता वक्त से, हालात से, और तकलीफों से भी बड़ा होता है, कालिधर की झुर्रियों में छुपी कहानियां और बेटे की मुस्कुराहट में छुपी उम्मीद मिलकर सिखाती है कि ज़िंदगी कभी आसान नहीं होती, मगर प्यार कभी हारता नहीं, चाहे इंसान लापता भी हो जाए, दिल का रिश्ता लापता नहीं होता, और यही है “कालिधर लापता” की असली दास्तान – मिट्टी से उठे एक बाप की, जो बेटे के लिए ज़िंदा रहा, और एक बेटे की, जिसने हर हाल में बाबा पर भरोसा रखा, और आखिर में दोनों की कहानी फिर से वहीं आकर पूरी होती है – एक खाट पर, तारों के नीचे, जहां दिल की बातें लफ्ज़ों की मोहताज नहीं होतीं।
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