🎥 Santosh (2024) – एक सच्ची खामोशी की चीख़ | फिल्म की पूरी कहानी
✅ Santosh (2024) – एक औरत की चुप चीख़
उत्तर भारत की पथरीली ज़मीन पर जन्मी एक सधी हुई मगर दिल को छू जाने वाली कहानी – ‘Santosh’। यह सिर्फ़ एक नाम नहीं, बल्कि उस हिम्मत की पहचान है जो हालात के थपेड़ों में भी दम नहीं तोड़ती।
Santosh Saini, एक सामान्य गृहिणी, जिसकी ज़िन्दगी का हर दिन रसोई, आंगन और तानों में बीतता था। उसका पति पुलिस में था – घर का इकलौता सहारा। लेकिन फिर एक दंगे की आग में उसकी दुनिया जल उठी – पति शहीद हुआ और Santosh को सरकारी नियमों के तहत उसी की जगह कांस्टेबल की नौकरी मिली।
वर्दी तो मिली पर इज़्ज़त नहीं – घर में ताने, पुलिस स्टेशन में हिकारत और समाज में अविश्वास। Santosh को पहली बार एहसास हुआ कि वर्दी पहनना जितना आसान दिखता है, उससे कई गुना मुश्किल उसकी गरिमा को जीना होता है।
🌱 पहला मोड़: जब लाश भी जात देखी जाती है
एक दिन थाने में सूचना आती है कि कुएं से एक दलित लड़की की लाश मिली है। वहां तैनात कई सिपाही उसे छूने से मना कर देते हैं – सिर्फ़ उसकी जात की वजह से। इंस्पेक्टर Geeta Sharma, जो सख़्त हैं मगर हालात से समझौता कर चुकी हैं, Santosh को आदेश देती हैं कि वो शव को पोस्टमॉर्टम के लिए भेजे।
पहली बार Santosh ने वो दर्द छुआ, जिसे समाज देखने से भी कतराता है। और शायद यहीं से उसकी आंखों पर बंधी परंपरा की पट्टी खुलने लगी।
🔍 जांच की दीवारें
Geeta के साथ Santosh उस लड़की के घर तक पहुँचती है। माँ-बाप खौफ से गूंगे बने बैठे हैं, गली के लोग सच बोलने से डरते हैं, और नेता-अफसर अपनी कुर्सी बचाने में जुटे हैं। Santosh की आत्मा चीख़ती है – “अगर हर कोई चुप है, तो क्या सच्चाई भी मर जाती है?”
Geeta एक रात कहती हैं, “पुलिस का काम कभी-कभी सिर्फ़ सन्नाटे को गिनना होता है, सच कहना नहीं।”
🌱 भीतर की अदालत
Santosh को कानून की किताबें नहीं आतीं, लेकिन इंसानियत की भाषा समझ में आती है। वो गवाहों से बात करती है, बच्चियों को हौसला देती है, खुद से डर को हटाकर सच के पास खड़ी होती है।
मगर सच के रास्ते में दीवारें खड़ी हैं – पैसों से, डर से, जाति से और सत्ता से बनी दीवारें।
एक रात Santosh कहती है:
“मुझे कानून के दफे नहीं आते... लेकिन ये लाश किसी की बहन थी, इतना जानती हूँ।”
🛑 अंत: न्याय या सिर्फ़ फाइल का एक पन्ना?
केस बंद हो जाता है – गिरफ्तारी नहीं, गवाह नहीं, न मीडिया की सुर्ख़ियाँ। Geeta का तबादला हो जाता है, Santosh वहीं रह जाती है – उसी वर्दी में, उसी कस्बे में।
मगर अब वो सिर्फ़ कांस्टेबल नहीं, खुद अपने लिए गवाह बन चुकी थी – उस सिस्टम की गवाह, जो सच देखते हुए भी आंखें फेर लेता है।
🎬 Santosh की आवाज़
Santosh किसी क्रांति की नेता नहीं, किसी आन्दोलन की नायिका नहीं। वो सिर्फ़ जीना चाहती है – इन्सान की तरह।
फिल्म का सवाल हर फ्रेम में गूंजता है:
“क्या इंसाफ डर के साये में पल सकता है?”
Santosh (2024) किसी हाई वोल्टेज ड्रामा की तरह नहीं, बल्कि धीमी लेकिन गूंजती हुई चीख़ की तरह है – जो बताती है कि असली बदलाव कानून या अदालत से नहीं, एक आम इंसान के खड़े हो जाने से आता है।
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