Udaipur Files
उदयपुर की तंग गलियों में जहाँ पत्थर की हवेलियाँ खामोश कहानियाँ सुनाती हैं, वहीं एक गली में वह दर्ज़ी की दुकान है, जो बाहर से टूटी-फूटी मगर अंदर से यादों और दर्द से भरी हुई है, उस दुकान में बैठा है इकबाल – सफेद बाल, झुकी कमर और धूल में अटकी हुई आँखों में गहराई लिए हुए, उसके काँपते हाथों में सूई है मगर दिल में चुभा हुआ है गुज़रे वक़्त का ज़हर, सड़क पर चलता आदमी भी उसे देखता है मगर उसकी आंखों की थकान को नहीं पढ़ पाता, इकबाल की कहानी वहीं से शुरू होती है जहाँ आदमी खुद से हार जाता है, मगर वक्त से लड़ना बंद नहीं करता, सालों पहले इकबाल एक मामूली दर्ज़ी नहीं था, वो इस शहर की रूह जानता था, हर कपड़े में मोहब्बत सिलता था, हर ग्राहक को नाम से पहचानता था, मगर फिर आया वो दिन जब सियासत, मज़हब और नफरत ने उसकी दुकान में आग नहीं, उसके सीने में आग लगा दी, शहर में एक कांड हुआ, जिसने उसकी दुकान के आगे भीड़ जमा कर दी, लोग चीख रहे थे, कुछ लोग कैमरा लिए खड़े थे, और इकबाल सिर्फ सूई पकड़े बैठा था, उसकी आंखों में सवाल था – “ये सब क्यों?”, मगर जवाब कहीं नहीं था, इकबाल का दिल कहता था, “हमने तो किसी का कुछ नहीं बिगाड़ा”, मगर वो जानता था कि आज उसका नाम ही उसकी सबसे बड़ी सज़ा है, अगले ही दिन दुकान के बाहर बोर्ड पर किसी ने लाल पेंट से लिख दिया “गद्दार”, उसकी उंगलियों से कपड़ा सिलना छूट गया, मगर पेट की आग नहीं बुझी, रात को घर जाते वक़्त उसके कदम भारी थे, मगर दिल का बोझ उससे भी भारी, उसकी बीवी फरहा रोती थी, कहती थी “शहर बदल लो इकबाल”, मगर इकबाल कहता था “हमने तो कुछ किया ही नहीं, क्यों भागें?”, मगर सच ये था कि शहर बदल चुका था, वो शहर जो कभी मंदिर-मस्जिद की गलियों से मिलकर बनी हुई एक तस्वीर था, अब वो तस्वीर फट चुकी थी, हर दरार में नफरत का ज़हर था, उस रात इकबाल की आँख लगी नहीं, उसने अपने बेटे इमरान को नींद में मुस्कुराते हुए देखा, और दिल में दुआ मांगी “या अल्लाह, इस बच्चे को बचा लेना इस आग से”, मगर अगले ही दिन आग उसके घर के दरवाज़े तक आ गई, इकबाल को धमकियाँ मिलीं, दुकान पर पत्थर फेंके गए, मगर उसने हिम्मत नहीं हारी, उसने सोचा था वक्त का घाव भी भर जाएगा, मगर वक्त ने जख्मों को गहरा कर दिया, कुछ दिनों बाद वही इमरान स्कूल से घर नहीं लौटा, दिल थम गया, दौड़ते हुए थाने गया, स्कूल गया, दोस्तों से पूछा, मगर कहीं कोई सुराग नहीं, फरहा की आंखों से आंसू थमने का नाम नहीं लेते थे, रातें बीतीं मगर इमरान का चेहरा आँखों से नहीं गया, हर सपना, हर सांस भारी लगती थी, इकबाल टूटता जा रहा था, मगर फिर भी उम्मीद का एक धागा पकड़े था, फिर एक दिन पुलिस ने बताया – “आपके बेटे की लाश मिली है”, उस वक़्त वक़्त जैसे थम गया, इकबाल की आँखें सुनी हो गईं, कानों में सिर्फ एक आवाज़ गूंजती रही “अब्बू”, घर में सन्नाटा ऐसा कि दीवारें भी रोती थीं, फरहा का दिल टूट गया, वो बीमार पड़ी और इकबाल अकेला रह गया, वो दुकान पर बैठता, मगर मशीन चलती नहीं, कपड़े कटते नहीं, धागा उलझ जाता, जैसे उसकी ज़िन्दगी की तरह, उस दिन से हर शाम उसकी दुकान पर एक फाइल वाला आदमी आता, हाथ में मोटी सी फाइल, नाम था “Udaipur Files”, कहता “सच लिखो, सच बोलो”, मगर सच क्या था? सच ये था कि एक बाप अपने बेटे को खो चुका था, एक आदमी अपने खुदा से लड़ रहा था, और एक दर्ज़ी अब खुद को भी सी नहीं पा रहा था, इकबाल की आंखों में आंसू नहीं बचे थे, मगर सवाल बाकी थे – “इमरान ने क्या गलत किया था?”, शहर में लोग कहते “मजहब की सजा मिली”, कुछ कहते “गलत वक्त में गलत जगह था”, मगर इकबाल जानता था कि वो सिर्फ एक बच्चा था, उस फाइल वाले आदमी ने कहा “ये कहानी दुनिया को बतानी होगी”, मगर इकबाल डरता था, डरता था उस भीड़ से जिसने उसकी दुकान को तोड़ा, उसके बेटे को छीना, और उसके दिल को जिंदा दफ़न कर दिया, मगर फिर एक दिन इकबाल ने फाइल खोली, उस पर बेटे की तस्वीर चिपकी थी, आंखों से आंसू फिर निकले, मगर इस बार डर के नहीं, गुस्से के थे, उसने लिखना शुरू किया – बेटे की हंसी, उसका मासूम सवाल “अब्बू, मैं बड़ा होकर क्या बनूँगा?”, वो सुबहें जब इमरान साइकिल चलाना सीख रहा था, वो शामें जब दोनों छत पर बैठकर चाँद देखते थे, उसने लिखा – “मेरा बेटा सिर्फ बेटा था, किसी का दुश्मन नहीं”, पन्ने दर पन्ने, यादें और आंसू बहते गए, मगर इकबाल लिखता गया, जैसे हर लफ्ज़ के साथ बेटे को दोबारा जी रहा हो, शहर की गलियों में अब भी डर था, मगर इकबाल के दिल में आग जल चुकी थी, Udaipur Files धीरे-धीरे मोटी होती गई, उस फाइल में नफरत का सच, सियासत की गंदगी, और एक बाप के दर्द की चीख सब कुछ दर्ज था, फाइल तैयार हुई, मगर अब सवाल था – किसे सुनाएं? इकबाल कोर्ट गया, हाथ में फाइल लिए कांपते हुए बोला “मुझे इंसाफ चाहिए”, कोर्ट में लोग चुप थे, मगर उसके लफ्ज़ गूंजते रहे, “मेरा बेटा गुनहगार नहीं था”, अखबारों में तस्वीरें छपीं, टीवी पर बहस हुई, मगर शहर की गलियों में अब भी कुछ नहीं बदला, लोग अब भी उसे देख कर फुसफुसाते, मगर इकबाल नहीं रुका, उसके लफ्ज़ अब हिम्मत बन चुके थे, उसने और केस पढ़े, और भी बच्चों की कहानियाँ जानी, और फाइल में दर्ज कीं, “Udaipur Files” अब सिर्फ उसके बेटे की नहीं, पूरे शहर की चीख बन चुकी थी, रातें बीतती रहीं, लोग भूलते गए, मगर इकबाल नहीं भूला, वो हर रोज़ कोर्ट जाता, फाइल दिखाता, चिल्लाता, “इंसाफ चाहिए”, एक दिन कोर्ट में जज ने पूछा “आपको क्या चाहिए?”, इकबाल बोला “मुझे मेरा बेटा चाहिए”, उसकी आवाज़ कांप रही थी, मगर सच्चाई ठोस थी, जज की आंखों में भी नमी थी, मगर कानून की किताबें आंसुओं से नहीं चलतीं, केस चलता रहा, साल बीतते गए, इकबाल बूढ़ा होता गया, बाल और सफेद हुए, कमर और झुकी, मगर फाइल का बोझ कम नहीं हुआ, उसकी दुकान अब भी खुलती थी, मगर मशीन नहीं चलती, ग्राहक नहीं आते, मगर इकबाल वहां बैठा रहता, जैसे बेटे का इंतज़ार कर रहा हो, “शायद आज लौट आए”, फरहा की भी मौत हो गई, अब इकबाल बिल्कुल अकेला था, मगर उसने फाइल नहीं छोड़ी, एक दिन उसी गली में कुछ लोग आए – डॉक्यूमेंट्री वाले, कैमरे के सामने बैठे इकबाल से पूछा “अब क्या चाहते हैं?”, इकबाल ने कांपते होठों से कहा “अब कुछ नहीं चाहिए, बस लोग भूलें नहीं”, कैमरे ने उसका दर्द कैद कर लिया, मगर कौन देखता? कुछ दिनों बाद कोर्ट ने फैसला सुनाया – “सबूत नहीं मिले, केस बंद”, उस दिन इकबाल कोर्ट के बाहर खड़ा रहा, फाइल सीने से लगाए, मगर अब आंखों में आंसू भी नहीं थे, दिल पत्थर हो चुका था, उसने आसमान की तरफ देखा, जैसे इमरान को ढूंढ रहा हो, फिर थके कदमों से दुकान लौटा, मशीन पर हाथ रखा, मगर हाथ कांप गए, फिर भी फाइल खोली, लिखा – “मुझे कुछ नहीं मिला, मगर मैं हार नहीं मानूँगा”, पन्ना भरा, मगर दिल खाली रहा, रात को दुकान में अकेला बैठा, बिजली चली गई, मगर उसने दिया जलाया, उस रौशनी में बेटे की तस्वीर देखी, हल्की सी मुस्कुराहट आई, जैसे इमरान कह रहा हो “अब्बू, आप हार मत मानना”, और इकबाल ने फुसफुसाकर कहा “नहीं बेटा”, सुबह हुई, दुकान फिर खुली, लोग फिर गुज़रे, मगर अब भी किसी ने नहीं पूछा “कैसे हो?”, मगर फर्क नहीं पड़ा, क्योंकि “Udaipur Files” इकबाल की ज़िन्दगी बन चुकी थी, नफरत से जला हुआ दिल अब भी धड़कता था, हर धड़कन बेटे की याद में, और हर सांस इस उम्मीद में कि शायद कभी किसी गली में सच ज़िंदा होकर लौट आए, और यही कहानी है उस बाप की जो बेटे के जाने के बाद भी हार नहीं माना, उस शहर की जो चुप रहा मगर दिल में आग थी, उस फाइल की जो सिर्फ कागज नहीं, एक जिंदा सवाल है – “हम कब तक चुप रहेंगे?”…
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